बिहार चुनाव पर उठे सवाल: मतदाताओं की चिन्ताएँ और चुनावी भरोसे की कसौटी

बिहार चुनाव

बिहार का हालिया विधानसभा चुनाव वोटिंग से ज़्यादा आरोपों और सवालों के कारण चर्चा में रहा। चुनाव खत्म होने के बाद भी बहस थमी नहीं। कई मतदाताओं ने खुलकर कहा कि उन्हें इस बार चुनाव प्रक्रिया पर भरोसा नहीं हुआ। सोशल मीडिया, छोटे समाचार मंच और स्थानीय नागरिक समूह लगातार यह मुद्दे उठा रहे हैं कि कुछ घटनाएँ सामान्य चुनावी माहौल का हिस्सा नहीं लगती थीं।

यह लेख किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए नहीं है। इसका उद्देश्य सिर्फ यह समझना है कि लोगों को किन बातों पर संदेह हुआ, किन प्रक्रियाओं को लेकर सवाल उठे और क्यों यह चुनाव पारदर्शिता की बहस का केंद्र बन गया।

1. महिलाओं को दस हजार रुपये देने वाली स्कीम की टाइमिंग पर चर्चा

सबसे पहले बात करते हैं उस स्कीम की जिसने पूरे चुनाव माहौल में अलग तरह की गर्मी ला दी। बिहार की महिलाओं को दस हजार रुपये देने वाली योजना सितंबर में लागू की गई और इसके भुगतान अक्टूबर से नवंबर तक जारी रहे। यह समय सीधे चुनावी गतिविधियों से जुड़ा था।

कई नागरिकों ने कहा कि चुनाव के दौरान ऐसे आर्थिक लाभ देना आम तौर पर मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में आता है। नियम साफ कहते हैं कि चुनाव अवधि में सरकार कोई नया लाभ या आर्थिक सहायता नहीं दे सकती, ताकि मतदाता प्रभावित न हों।

सरकार का तर्क यह रहा कि यह महिलाओं की उद्यमिता से जुड़ी योजना थी और इसका चुनाव से कोई संबंध नहीं था। लेकिन आलोचकों का कहना है कि अगर यही योजना कुछ महीने पहले लागू होती, तो शायद यह बहस ही नहीं होती।

इसके साथ एक और बात जुड़ी। कुछ नेताओं ने भविष्य में और बड़ी आर्थिक सहायता का संकेत दिया। इससे लोगों में यह सवाल उठने लगा कि क्या मतदाताओं में यह उम्मीद पैदा की गई कि लाभ तभी जारी रहेंगे जब सत्ता उन्हीं के हाथ में रहेगी।

2. मतदाता सूची में डुप्लीकेट नामों का मामला

दूसरा मुद्दा मतदाता सूची की विश्वसनीयता से जुड़ा रहा। कई स्वतंत्र रिपोर्टों में यह दावा किया गया कि बड़ी संख्या में ऐसे नाम मिले जो दो अलग राज्यों की सूचियों में भी मौजूद थे। कुछ लोग सोशल मीडिया पर खुद यह कहते दिखाई दिए कि उनका नाम दो जगह दर्ज है।

कुछ संगठनों ने यह भी कहा कि इस बार चुनाव आयोग ने वह सॉफ्टवेयर इस्तेमाल नहीं किया जो सामान्यत: डुप्लीकेट वोटरों की पहचान करने के लिए लगाया जाता है। यह दावा कितना सही है, इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई, लेकिन यह सवाल ज़रूर बना रहा कि अगर संदेह था तो उसकी जांच कितनी गंभीरता से हुई।

मतदाता सूची लोकतंत्र की सबसे बुनियादी जरूरत है। यदि इसमें ही गड़बड़ी की आशंका पैदा हो जाए, तो बाकी सारी प्रक्रियाएँ सवालों में घिर जाती हैं।

3. हरियाणा से कथित स्पेशल ट्रेनें और सफर का खर्च

चुनाव के दौरान एक और मुद्दा चर्चा में रहा। कुछ वीडियो सामने आए जिनमें लोग यह कहते दिखे कि हरियाणा से स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं और वोट डालने के लिए उन्हें बिहार लाया गया। कुछ ने यह भी कहा कि आने-जाने का पूरा खर्च राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने दिया।

यह आरोप इसलिए गंभीर था क्योंकि नियम यह कहते हैं कि किसी भी उम्मीदवार या पार्टी को मतदाताओं की मुफ्त यात्रा कराना मना है। इसे भ्रष्ट आचरण माना जाता है और इसके लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान है।

यह दावे कितने सच हैं, यह सवाल आज भी अधर में है। कोई विस्तृत आधिकारिक जांच रिपोर्ट सामने नहीं आई। लेकिन इस विवाद ने माहौल को ज़रूर बदला और लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या यह चुनाव वाकई पूरी तरह निष्पक्ष था।

4. सीसीटीवी फुटेज से जुड़े नियमों में बदलाव

मतदान केंद्रों पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज हमेशा पारदर्शिता का एक महत्वपूर्ण साधन रही है। नागरिक समूहों और वकीलों का कहना है कि इससे यह साफ पता चलता है कि मतदान प्रक्रिया बिना दबाव और बिना गड़बड़ी के हुई या नहीं।

लेकिन इस बार एक बदलाव चौंकाने वाला रहा। नियमों में संशोधन कर सीसीटीवी फुटेज को उन दस्तावेजों की सूची से हटा दिया गया जिन्हें कोई नागरिक फीस देकर मांग सकता है। यह बदलाव चुनाव से कुछ समय पहले किया गया था।

इसके बाद एक और आदेश आया कि चुनाव परिणाम के 45 दिन बाद फुटेज डिलीट कर दी जाएगी। आलोचकों ने कहा कि यह कदम पारदर्शिता के खिलाफ है। चुनाव आयोग का कहना था कि गोपनीयता और तकनीकी कारणों से यह जरूरी कदम है, लेकिन यह जवाब नागरिकों को संतुष्ट नहीं कर पाया।

5. मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नाम हटाने की शिकायतें

चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट करने की प्रक्रिया में करीब 46 से 47 लाख नाम सूची से हटाए गए। यह संख्या अपने आप में बड़ी है। कुछ नागरिक संगठनों ने यह आरोप लगाया कि जिन समुदायों का झुकाव विपक्ष की तरफ माना जाता है, उनके नाम ज्यादा संख्या में हटाए गए।

सीमांचल इलाकों में यह बहस ज्यादा तेज रही। कई लोग मतदान वाले दिन यह कहते दिखे कि उनका नाम सूची में नहीं है जबकि उनके पास वोटर आईडी कार्ड है।

सरकार और चुनाव आयोग की ओर से यह कहा गया कि यह एक नियमित प्रक्रिया थी जिसमें पुराने, मृत या डुप्लीकेट नाम हटाए जाते हैं। लेकिन लोगों के अनुभव कुछ और ही बताते रहे। यही वजह है कि यह मुद्दा लगातार चर्चा में है।

इसे भी पढ़ें – बिहार चुनाव 2025: अब जात नहीं, रोजगार तय करेगा जनता का फैसला

निष्कर्ष

बिहार चुनाव सिर्फ एक राजनीतिक मुकाबला नहीं रहा। यह चुनाव उस भरोसे की भी परीक्षा बन गया जिस पर लोकतंत्र टिका है। एक तरफ सरकार और संस्थान यह दावा करते रहे कि पूरी प्रक्रिया नियमों के तहत हुई। दूसरी तरफ बड़ी संख्या में लोग कई सवालों के जवाब तलाशते नजर आए।

इन विवादों ने यह साफ कर दिया कि चुनावी प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए सिर्फ कानून काफी नहीं। जरूरत इस बात की भी है कि जनता का भरोसा बना रहे। पारदर्शिता उतनी ही जरूरी है जितनी निष्पक्षता।

लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि नागरिक सवाल पूछते हैं और संस्थानों का कर्तव्य है कि वे उन सवालों के संतुलित और स्पष्ट जवाब दें। बिहार चुनाव इस बहस को और गहरा कर गया है। आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या इन शिकायतों का समाधान होता है या ये सवाल यूँ ही अधूरे रह जाते हैं।

Read Also: How Caste and Class Shaped the 2025 Bihar Election Results & Rahul Gandhi Claims Vote Theft in Haryana Election, Sparks Political Row

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *